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बड़े-बुजुर्गों से विरासत में एक आदत मिली है, खरोंच को इतना पकाओ कि वह ‘नासूर’ बन जाए. विरासत में मिली इस आदत को हम पीढ़ीदरपीढ़ी निभाते चले जा रहे है. इस एक आदत की वजह से हम अपने हालात इतने खराब कर लेते है कि वह लाइलाज बन जाते है. और हम इतने मजबूर हो जाते है कि उस जख्मी हिस्से को अपने से न अलग कर सकते और न ही उसके साथ रह सकते. हमने ही अपने हिस्से की खरोंचों को इतना कुरेदा कि आज उनका इलाज हो जाए, संभव नहीं. घर हो देश हर जगह अपने मामूली जख्म पर मल्हम लगाने की बजाए हम उसको इतना कुरेद देते है कि वह नासूर बन जाता है. अपने आसपास ही हमको इतने उदाहरण मिल जाएगे, जिनको देख हम ही कह देते है कि यह तो नासूर बन चुका है, पहले ध्यान दिया होता, तो शायद यह दिन न देखने पड़ते. दूसरी ओर देश की बात करें तो हमने वर्षों तक मुगलों और ब्रिटिशों के खिलाफ लड़भिड़ कर किसी तरह अपने को आजाद तो करवा लिया, पर इस लड़ाई में अपने सिर (कश्मीर) पर लगी खरोंचों का वक्त पर इलाज नहीं किया और आज उसके इलाज के लिए विदेशियों की ओर नम आंखों से निहार रहे है कि कोई है जो हमको इस दर्द से मुक्ति दिलाए और हमारे जख्म का इलाज कर दें. यह जख्म इतना गहरा हो गया है कि हर पल खून के आंसू रूला रहा है और हम बेबस और लाचार है. सवाल यह उठता है कि क्या जरूरी है कि हम सदियों से चली आ रही इस पम्परा को निभाए? क्या हम अपने जख्मों का इलाज करने में असक्षम है? या अपने जख्मों को कुरेदने में संस्तुष्टि मिलती है. या दुनिया की चकाचौंध के बीच अपनी खरोंच को ठीक करने का समय नहीं मिल पाता. आखिर हम क्यों किसी जख्म का नासूर बनने तक इंतजार करते है?
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