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महिला अधिकारों की बात करने वाले क्यों भूल जाते है कि महिला की सबसे बड़ी दुश्मन महिला ही होती है. किसी भी महिला के जुल्मोसितम की तह में जाने पर पता चल जाएगा कि उसकी सूत्रधार एक महिला ही है. अब दहेज उत्पीडऩ का मामला हो या दहेज हत्या का. दोनों ही मामलों में पर्दे के पीछे से सास या ननद का ही चक्रव्यूह रचा हुआ होता है, और फंस जाता है वह पुरुष जो दिन भर की भागदौड़ के बाद थकामांदा घर लौटता है और पागल हो जाता है घर में मचे कोहराम को सुनने देखने के बाद. क्योंकि वहां पर सास यह भूल जाती है कि वह भी कभी बहू थी या ननद को पता नहीं होता कि वह भी कभी किसी के घर की बहू बनेगी. और कहते है न कि अपने की हजार गलती माफ. और बहू, जिसको अभी इस घर में आए चार दिन भी नहीं हुए, को इस घर में अपनी विश्वसनीयता और महत्ता साबित करने में बहुत लंबा वक्त लगेगा, वह वक्त से पहले की टूट जाती है, उसके प्रतिरोध से ही शुरू होती है जुल्मोसितम की ऐसी दास्तां, जो उसकी जान लेकर ही खत्म होती है. हां, ऐसा उन घरों में नहीं होता, जहां सुशिक्षित व समझदार मां सास बनने से पहले ही अपनी बेटी को अहसास करा देती है कि वह भी बहू किसी के घर की बहू बनेगी. दुर्भाग्यपूर्ण बात यह है कि ऐसा उस समाज में हो रहा है, जहां पर महिलाएं सत्ता के सर्वोच्च शिखरों पर विद्यमान है. समझ नहीं आता कि जब एक मां बड़े अरमानों से दूसरे की बगिया का महकता फूल अपने घरआंगन के लिए लेकर आती है, तो उसको मसलने की कैसे सोच लेती है. दहेज उत्पीडऩ या दहेज हत्या पर पूर्ण रूप से रोक लगाने में खुद महिला ही सक्षम है, क्योंकि घरघर की कहानी की असली लेखक व सूत्रधार वह स्वयं ही तो है.
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