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न जाने किस की नजर लग गई

Harish Bhatt
Harish Bhatt
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कभी-कभी समझ में नहीं आता है कि आखिर क्यों हमारे नेता या वरिष्ट अधिकारी भष्ट्राचार व अपराध को बढ़ावा देते है। क्योंकि एक इंसान को अपना जीवन बेहतरीन व सर्वश्रेष्ठ बनाने के लिए जिन चीजों की जरुरत होती है, वह सब ही तो इनके पास उपलब्ध है। आम जनता इनको पलकों पर बैठा कर रखती है और यह उसकी आंखों से सूरमा ही गायब कर देते है। हर पांच साल में अपनी सुरीली आवाज, मोहिनी सूरत के साथ जनता को जनार्दन समझ उनके दरवाजे पर दस्तक देने वाले यह नेता आखिर क्यों भूल जाते है कि इनको अपना भाग्य-विधाता बनाने वाली आम जनता का जीवन भी तो है, जब जनता ने सारे गिले-शिकवे भुलाकर इनको अपना लिया, तो यह क्यों उसके साथ गद्‌दारी करते है। अगर कभी इनसे गलत काम हो भी जाए तो इनको कौन सजा दे सकता है। आज हमारे लोकतंत्र में इतनी शक्ति नहीं रह गई है कि इन नेताओं को सजा दी जा सके। कितने भी बडे घोटाले कर लो, जनता कुछ समय तक हल्ला मचाएगी फिर चुप हो जाएगी की तर्ज पर अधिकारी वर्ग द्वारा इनके लिए जेलों को भी महल में तब्दील कर दिया जाता है। जहां पर यह आम जनता की पहुंच से दूर आराम से अपना जीवन व्यतीत करते है। रही बात अधिकारियों की तो वह तो इन नेताओं से भी बहुत अच्छा जीवन यापन करते है, सरकारी खर्चे पर नौकर-चाकर, गाडियां हर वक्त मौजूद रहती है। समाज में इनको सम्मानित दृष्टि से देखा जाता है। इनको सामाजिक व्यवस्थाओं को सुचारू रूप से चलाने की महती जिम्मेदारी सौंप जाती है, ताकि आम जनता चैनो-सुकून से जीवन व्यतीत करें। पर आजकल देखा जाता है कि यह अधिकारी वर्ग, जो राजाओं जैसा जीवन व्यतीत करते है, इनके पास क्या काम हो सकता है, जो भी काम होता है, उसको करने के लिए इनके पास कर्मचारियों की लंबी फौज रहती है। फिर भी यह ईमानदारी से अपने कर्तव्य को क्यों नहीं निभाते। जहां एक छोटी सी चोरी के लिए तीन साल तक की सजा का प्रावधान हो, वहां पर इन बड़े चोरों के लिए सजा का औचित्य नहीं है, अगर आंदोलन या हो-हल्ले के बाद इनके खिलाफ कार्यवाही की बात की भी जाती है तो जांच कराएंगे, रिपोर्ट के बाद फैसला होगा के जुमलों के साथ इतना समय खराब कर दिया जाता है कि तब तक यह अपनी पूरी जिंदगी आराम से जी लेते है। आजादी के इतने सालों बाद भी आज हमारे गांव अंधेरों में डूबे हुए है, बढते जनसँख्या दबाव को झेलने में नाकाम साबित हो रहे शहर पूर्ण विकसित होने को तडप रहे है, शहरों की चौडी सडके सिकुड कर गलिया बन रही है। हमारे नेता या अधिकारी चांद पर जाने की बात गर्व से करते है कि धरती पर जीवन को व्यवस्थित करने में उनके पसीने छूट रहे है। आज भी बडे-बुजुर्ग कभी गर्व से या कभी दबी जुबान से कह ही देते है कि अंग्रेज ही अच्छे थे, कम से कम उनके द्वारा निर्मित जनपयोगी कार्यो की गुणवत्ता उच्च कोटि की होती थी। शायद ही कोई शहर ऐसा जहां पर उनकी याद दिलाती इमारत या पुल न हो। अब तो हालात इस कदर हो गए है कि कोई निर्माण कार्य पूरा हुआ नहीं, उसके भरभरा कर ध्वस्त होने की खबर पहले आ जाती है। दुनिया को राह दिखाने वाली गौरवशाली इतिहास की साक्षी इस धरती को न जाने किस की नजर लग गई है कि हर शख्स को अपनी धरती से ज्यादा विदेशी धरती आकर्षित कर रही है। आखिर समझ नहीं आता है कि ऐसा क्यों हो रहा है? हम कहां पर गलत साबित हो रहे है? कब तक ऐसा होता रहेगा? या कभी कुछ सुधर भी पाएगा या ऐसे ही………………….?

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