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हर कोई अपने को राजनीति का धुरंधर खिलाड़ी समझ बैठा है। बस यही सबसे बड़ी समस्या है। आज कहने भर को ही राजनीति रह गई है। वरना तो अब यह घर नीति बन कर रह गई है। जब कोई भी बात घर-घर में घुस में जाती है, तो समझा जा सकता है, उसका क्या हाल होगा। कभी राज्य की व्यवस्थाओं को सुचारू रूप से चलाने के लिए नीतियां का निर्धारण किया जाता था। उन्हीं नीतियों को राजनीति कहा जाता था। अब वह बात कहां रह गई है। अब तो राज्य हित एक तरफ और अपने निजी स्वार्थ एक तरफ। यह दोनों नदी के दो किनारों के तरह है। जो दिखते तो साथ-साथ है, पर आपस में कभी एक नहीं हो सकते। अगर यह दोनों एक-दूसरे में समाहित हो जाए, तो रामराज्य की कल्पना साकार हो सकती है। यानि राज्य हित ही निजी स्वार्थ बन जाए या फिर निजी स्वार्थ राज्य का हित हो। लेकिन अब ऐसा नहीं हो सकता, निजी स्वार्थों की खातिर राज्य हित के कोई मायने नहीं है। किसी भी बात का मूल्य तब तक ही रहता है, जब तक वह दूसरे के पास है। लेकिन जब उसका उपयोग सभी के लिए आसान हो जाए, तो वह मूल्यहीन हो जाती है। बस कुछ ऐसा ही आज हो रहा है। राजनेताओं ने अपने निजी स्वार्थों के लिए राजनीति को इस कदर जन-जन तक पहुंचा दिया है कि अब आम आदमी भी राजनीति का उपयोग अपने स्वार्थों को पूरा करने के लिए करने लगा है। फिर कहा भी जाता है कि घर की मुर्गी दाल बराबर। जब राजनीति घर-घर में घुस ही गई है तो फिर उसका मूल्य कहां बचा। जिसको देखो वह अपने सहयोगी से यही कहता फिरता है कि मेरे साथ राजनीति कर रहा है। गुलामी के दौर में अंग्रेजों ने अपना प्रभुत्व बनाए रखने के लिए राजनीति के हर दांव का इस्तेमाल बखूबी किया। लेकिन जाते-जाते वह एक दांव भारतीयों को सिखा गए, फूट डालो-राज करो। इस दांव का इस्तेमाल घर-घर में हो रहा है। हर किसी को इस दांव में महारत हासिल है। भले ही उसने कुछ सीखा हो या न सीखा हो, पर अपने स्वार्थ को पूरा करने के लिए दूसरे को काटना उसने बखूबी सीख लिया है। जनता ने भी अपने-अपने गुट बना लिए, जनता भी इन गुटों के मुखियाओं के पीछे आंख मूंद कर चलती है। इन मुखियाओं का आलम यह है कि इनको आपसी प्यार, सौहार्द, राज्य के हित यानि जनता के हितों से कोई नाता नहीं है। आखिर बात भी करें तो किसी की, अभी कुछ समय पहले भ्रष्टाचार के खिलाफ सशक्त आंदोलन की शुरूआत करने वाले अन्ना हजारे भी समय आने पर सुप्त हो गए, आम जनता की आवाज बने अन्ना हजारे खुद राजनीति के शिकार हो गए। अफसोस तो इस बात है कि राजनीति के महापंडित चाणक्य की धरती पर ही राजनीति तार-तार हो रही है।
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