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क्या कहूँ, किसी की बात करूं, जिधर भी देखता, उधर निराशा ही हाथ लगती है। हर कोई दिल में कालिख लिए खुद को दूध का धुला बता रहा है। जिसको देखो वह छाती ठोक कर चिल्ला रहा है कि इस देश से भ्रष्टाचार मिटाने के लिए वह कृतसंकल्प है, फिर वह चाहे नेता हो, मंत्री हो, अधिकारी-कर्मचारी हो या फिर आम आदमी खुद। यहां पर कोई मरा-गिरा भी समझ सकता है कि जब हर कोई ईमानदार है और भ्रष्टाचार मिटाना चाहता है तो फिर भ्रष्टाचार कैसे हो रहा है और कौन इसको बढ़ावा दे रहा है। सब एक से बढ़कर एक है, कोई किसी से कम नहीं है। जिसको जहां मौका मिला, वह वही पर शुरू हो जाता है भ्रष्टाचार को सींचने में। हर कोई अपनी हैसियत व अपनी योग्यता के मुताबिक इस भ्रष्टाचार बढ़ाने में योगदान दे रहा है। एक मामूली सा चपरासी 50 रुपए में सेट हो जाता है तो क्लर्क बाबू 1000 रुपए में। जैसे जैसे योग्यता व अधिकारों का क्रम बढ़ता है वैसे- वैसे रुपए बढ़ते रहते है। सचिव बाबू 50000 में सेट हो गए और मंत्री जी लाखों में बिक जाते है। इस सबको बढ़ावा देती है बेचारी जनता। अब इसे जनता की मजबूरी कहूं या जनता की खुशी। अभी हाल में ही उत्तराखंड विधानसभा चुनाव संपन्न हुए। जिसके नतीजों को देखा जाए तो समझ आ जाएगा कि कौन गलत है और कौन सही। उत्तराखंड की कोटद्वार विधानसभा सीट पर भाजपा प्रत्याशी मेजर भुवन चंद्र खंडूरी चुनाव हार गए। मेजर भुवन चंद्र खंडूरी, जिनको कौन नहीं जानता, उत्तराखंड के मौजूदा परिदृश्य में सबसे योग्य व ईमानदार व्यक्ति चुनाव हार गए, उनकी हार के लिए तो जनता ही जिम्मेदार है। माना खंडूरी को हराने के लिए उनकी ही पार्टी ने भीतरघात किया हो, पर कितने लोग होगे मुट्ठी भर ही। साथ ही एक दूसरे प्रत्याशी प्रकाश पंत को जनता ने नकार दिया। जबकि भ्रष्टाचार के आरोपों से घिरे पूर्व सीएम डॉ रमेश पोखरियाल निशंक चुनाव जीत जाते है। कहा जा रहा है कि डॉ निशंक ने अपना चुनाव जीतने के लिए पैसा पानी की बहाया। खुद ही सोचा जा सकता है कि जिसने चुनाव जीतने के लिए पैसा पानी की तरह बहाया, वह अपने पैसे की भरपाई तो करेगा ही। यह तो सिर्फ उदाहरण है उस व्यवस्था का जिसको बदलने की बात सभी करते है, पर खुद को कोई नहीं बदलता। लाख टके की बात है कि व्यवस्था को बदलने से कुछ नहीं होने वाला. हां खुद ईमानदार होने से सब अच्छा जरूर होगा। अब यहां देखिए अगर भ्रष्टाचार मिटाने के लिए जनलोकपाल बिल लागू हो जाता है और लोकायुक्त ही भ्रष्ट हो जाएं, तो इस कवायद का क्या फायदा। लेकिन अगर इस देश के नागरिक, अधिकारी और नेता ईमानदार हो जाए तो क्या जरूरत है कि जनलोकपाल बिल की। यह हमारे देश की विडंबना ही है कि लोकतांत्रिक व्यवस्था को राजतंत्र के पोषक संचालित करते है। यह राजतंत्र के पोषक चिल्ला-चिल्ला कर आम जन को लोकतंत्र की परिभाषाएं व महत्व समझाते फिरते है, और निर्णायक मौकों पर राजा का बेटा राजा वाली नीति लागू कर देते है। बात यह है कि इस देश में कुछ सुधरने वाला नहीं है, जो जैसा चल रहा है, बस चल ही रहा है। मीडिया हल्ला मचाती रहेगी। मीडिया लाख सबूतों के साथ जनता के सामने साबित कर दे, फलां नेता जी भ्रष्ट है, उन्होंने आपके साथ धोखा किया है, जनता पर कोई फर्क नहीं पड़ने वाला। हम लिखते रहेंगे, चिल्लाते रहेंगे, समय गुजरता रहेगा, देश व समाज को बदलने की सोचते-सोचते बस यूं ही चले जाएंगे एक दिन इस जहां से़ इस उम्मीद के साथ…. काश कोई तो सुबह ऐसी होगी, जो सुशासन की किरण लाएगी।
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