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क्या लिखूं? कई दिन हो गए, कुछ लिखा नहीं है. यूं तो सोच का सागर बहुत गहरा है. लेकिन उसको मथने का समय नहीं मिल पा रहा है. कभी सोचता हूं यह लिखंू, कभी सोचता वह लिखूं. इस उधेड़बुन में कुछ भी नहीं बुना जाता. इस असमंजस की स्थिति में कुछ लिख भी लिया, तो पोस्ट जरूर करूंगा. अगर कहीं आपको अच्छा नहीं लगा तो आपका समय खराब होगा. आप भी कहेंगे, अरे यह क्या लिख दिया. जब लिखना नहीं आता, तो लिखने की जरूरत क्या थी. जब से सोशल नेटवर्किंग साइट्स का जमाना आ आया है. मेरे तो मजे आ गए. क्योंकि इससे पहले तो कॉलेज की कापियों के आखिरी पन्नों के अलावा अपने कहीं पर जगह नहीं थी. मैं जो कुछ लिखता हूं, वह मुझे ही अच्छा लगता है, साथ ही वह कहीं पर भी प्रकाशन के योग्य नहीं होता. जहां एक ओर पत्रिकाओं तक पहुंच नहीं है, तो वहीं अखबारों में स्पेस नहीं है. दोनों ही जगहों पर स्थापित व पहचान वालों के बीच अपने लिए जगह तलाश करना आसमान से तारे तोड़ लाने के समान लगता था. इन सोशल साइट्स के दौर में तो लगता है कि थोड़ी सी कोशिश ईमानदार से कर ली जाएं तो तारों की क्या बात है चांद को भी धरती पर लाया जा सकता है. वैसे भी इंसान चांद पर पहुंच ही गया है. इसी बात से सोचा जा सकता है कि अगर इंसान चाहे तो क्या नहीं हो सकता. जरूरत सिर्फ इस बात की है कि वह अपनी शक्तियों का उपयोग ईमानदारी से करते हुए अपने लक्ष्य पर अडिग रहे. रास्ते बनते नहीं, बनाए जाते है. दूसरों को सुधारने से अच्छा है, खुद ही सुधर जाओ. जब तक चीजें अपने मनमाफिक रहती है, तब तक वह बहुत अच्छी लगती है, लेकिन जैसे वह अपनी इच्छाओं के विपरीत होने लगती है, तो वही खराब लगने लगती है. उस समय इन साइट्स की ताकत का अंदाजा हो जाता है, तब सरकारें इन पर रोक लगाने की बात करती है. तब लगता है कि अगर सही दिशा में सही सोच के साथ इन साइट्स का उपयोग किया जाए, तो पलों में ही बहुत कुछ बदला जा सकता है. पहले जैसे दिन तो रहे नहीं, आज लिखा और कई दिनों तक इंतजार में बैठे रहो, क्या होगा. अब तो इधर पोस्ट, उधर कमेंट. यह अलग बात है कि आप क्या लिखते है और उस पर क्या प्रतिक्रिया होती है.
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