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बाबा जी का ठूल्लू. आजकल जिधर देखो, उधर ही बाबा जी का ठूल्लू सुनाई पड़ता है. सुनते ही चेहरे पर मुस्कान सी छा जाती है. अब यह ठूल्लू क्या है, इसको जानने की जरूरत ही नहीं है, बस सुनाने वाला और सुनने वाला दोनों समझ जाते है. मगर नहीं समझ पाते तो मासूम से बच्चे. कॉमेडी स्टार की यह कॉमेडी नई पीढ़ी को किस दिशा में ले जाएगी, यह तो आने वाला समय ही बताएगा. लेकिन फिलहाल यही सवाल अगर मासूम सा बच्चा जब अपने से सवाल करता है कि बाबा जी ठूल्लू क्या है, तो बगले झांकने के सिवाय और कुछ नहीं बचता.
आखिर ऐसा क्यों होता है. हम समाज की सोच बदलने की बजाए अगर बाबा जी के ठूल्लू को सामने आने से पहले ही बैन कर देते तो शायद बच्चों के सामने नजरें चुराने से बच जाते. आज का ज्वलंत सवाल ‘बच्चे बिगड़ रहे है? जिसने हर किसी को परेशान कर रखा है कि जबकि सच तो यह है कि बच्चे नहीं अभिभावक बिगड़ रहे हैं. क्योंकि हमारी आदत है कि अपनी कमियां न देखकर सीधे दूसरे पर आरोप लगाने की रही है. इसका ही नतीजा है कि अभिभावक अपने दोष न देखते हुए सीधे बच्चों पर आरोप लगा रहे हैं कि बच्चे बिगड रहे हैं. बच्चों को सुधारने की लाख कोशिशों के बाद भी वह नहीं सुधर रहे है. इस सवाल के जवाब की तलाश के लिए अभिभावक हैरान-परेशान इधर-उधर भाग रहे है. जबकि इसका जवाब हर अभिभावक के पास मौजूद है. जरूरत है तो बस उसको समझने की. बच्चों से ज्यादा बड़े बिगड़े हुए, उनके पास अपने बच्चों के लिए समय नहीं है, जिस समय पर बच्चों को अपनी दादी की गोद में बैठकर राजा-रानी की कहानी सुननी चाहिए, उसी समय दादी को बहू पर राज करने के नुस्खे सीखने के लिए टीवी देखना है, तो इसमें बच्चों का क्या दोष. स्कूल से थके-मांदे हांफते हुए घर पहुंचे बच्चों को खाना खिलाकर होमवर्क कराने की बजाय मम्मी को अपनी ससुराल में महारानी बनने की ट्यूशन केबल चैनल्स के सीरियल्स लेनी है और जब मम्मी को अपनी क्लास से छुट्टी मिलेगी तब ही तो वह बच्चों का होमवर्क कराएगी. फिर पापा की तो बात ही क्या, उनको अपने वर्क पैलेस से ही फुरसत नहीं है, और जो समय मिला भी तो उसमें ऐश भी तो करनी है, बच्चों का क्या वह खुद ही समझदार है. अब खुद ही सोचिए जब हमने बच्चों को खुद उनके हाल ही छोड़ दिया, तो उनकी क्या गलती, फिर बालमन तो वैसे ही बहुत तेजी से सीखता है, जिस बात पर सबसे ज्यादा प्रभाव बालमन पर पड़ता है, वैसा ही बर्ताव बच्चे करने लगते है. अब क्योंकि हमारे समाज में चीजें बहुत तेजी से बदल रही है, टेलीविजन, केबल नेटवर्क, कम्प्यूटर, इंटरनेट के बाद तो चीजे बहुत तेजी से हमारे आसपास तो क्या, घर तक पहुंच गई है. ऐसे में अभिभावकों के लिए जरूरी हो जाता है कि बच्चों पर आरोप लगाने की बजाए अपने व्यस्त समय में से थोड़ा बहुत समय अपने बच्चों के लिए भी निकालने की, ताकि बच्चों के दिलो-दिमाग को अपनी गिरफ्त में लेने को बेताब टीवी सीरीयल्स व इंटरनेट आदि गैर-जरूरी चीजों से बच्चों को बचाया जा सके. फिर यह भी तो कहा जाता है कि बच्चे की पहली पाठशाला उसका घर ही होता है, जहां उसके टीचर उसके मम्मी-पापा होते है, अब जैसा उसके मम्मी-पापा उसको सिखाएगे, वह वैसा ही सीखेगा. बच्चा तो कुछ भी सीखने को बेताब है ही. फिर हम क्यों उसको दूसरे के भरोसे छोड़ते है. हम क्यों नहीं उसको अपने संस्कार सिखाते, क्यों नहीं उसको राजा-रानी, विक्रम-बेताल या चंदामामा की कहानियां सुनाते, क्यों हम उसको बिगबॉस के हवाले छोड़ देते है. क्यों हम उसको लिटिल चैंप बनने के लिए प्रेरित करते है. क्यों हम उनको दुनिया की रेस में आगे रहने के लिए स्पीड बाइक्स चलाने की सीख देते है. जब हम खुद ही अपने बच्चों को खुली छूट देकर उनको बिगड़ जाने के लिए प्रेरित कर रहे है. तब समझ नहीं आता, हम क्यों बच्चों को अपराधी ठहरा रहे है? जबकि असली अपराधी तो स्वयं अभिभावक ही है.
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