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मैंने सुना था उस समय, जब अरविन्द केजरीवाल ने कहा था कि दोस्तों हम लोगों ने कांग्रेस और भाजपा से दुखी होकर आप का गठन किया है, आप ऐसा कोई काम मत करना कि भविष्य में इन तीनों से दुखी होकर एक नई पार्टी का उदय हो, शायद अरविन्द केजरीवाल जनता को काफी हद तक भांप लेते है, तभी उन्होंने ऐसी आशंका जाहिर की थी. वह स्वयं में ईमानदार है या नहीं यह वह ही जाने, पर संघर्षशील जरूर है. एक अच्छे सेनापति को सेना अच्छी न मिले तो कामयाबी उससे भी कोसो दूर रहती है. यूं भी किसी विशेष मसले को लेकर हुए जनांदोलन से उपजी पार्टी का अस्तिव ज्यादा दिनों तक नहीं रहता. अन्ना हजारे इस बात को बेहतर ढंग से समझते है, तभी उन्होंने राजनीतिक पार्टी के गठन का विरोध किया था. फिर भी अपने आदर्श व गुरू से विद्रोह करते हुए अरविन्द केजरीवाल ने आप का गठन किया. तब आप से उम्मीद की लौ जगने लगी थी, पर हाय जनता की किस्मत कांग्रेस भाजपा की आंधी में यह लौ हिचकौले खाने लगी. अब यह लौ कब हवा विलीन हो जाएं, कहा नहीं जा सकता. फिर तो इन समस्याओं को सुलझाने के लिए ‘हम’ को आना ही होगा. दो साल पहले पूरे देश भर में भ्रष्टाचार के विरूद्ध एक बडा आंदोलन खडा करने वाले अरविंद केजरीवाल यह कैसे भूल गए कि ईमारत की मजबूती के लिए उसकी नींव मजबूत होना जरूरी होता है. यह अलग बात है कि उस आंदोलन के खडा होने में उसके नेताओं का कम और मीडिया की भूमिका ज्यादा महत्वपूर्ण थी. अन्ना हो अरविन्द या फिर प्रशांत भूषण या कुमार विश्वास कौन इनको जानता था, मीडया ने खासतौर पर न्यूज चैनल्स ने इनको घर-घर में घुसा दिया. उस समय इन नेताओं के इरादे नेक थे, लोगों ने इनको पलको पर बैठा लिया. लेकिन बेचारे अन्ना राजनीतिक शतरंज में ऐसे उलझे कि कब हमको सोता छोड निकल गए वापस अपने घर मालूम ही नहीं चला. किसका आंदोलन, किसका लोकपाल. लोक पाल ने के किए आप ने हिम्मत दिखाई पर आप आपस में गुत्थम-गुत्था हो लिए. पहले आप- पहले आप के चक्कर में बेचारी दिल्ली लटक गई. भारत को भ्रष्टाचार मुक्त रखने का एक ही सूत्र वाक्य है आप सुधर जाए, देश अपने आप सुधर जाएगा.
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