- 329 Posts
- 1555 Comments
1 सितंबर, 1994
उत्तराखण्ड राज्य आन्दोलन का काला दिन माना जाता है, क्योंकि इस दिन की जैसी पुलिस बर्बरता की कार्यवाही इससे पहले कहीं और देखने को नहीं मिली थी. पुलिस द्वारा बिना चेतावनी दिये ही आन्दोलनकारियों के ऊपर अंधाधुंध फायरिंग की गई, जिसके परिणामस्वरुप सात आन्दोलनकारियों की मृत्यु हो गई.
2 सितंबर, 1994
खटीमा गोलीकाण्ड के विरोध में मौन जुलूस निकाल रहे लोगों पर एक बार फिर पुलिसिया कहर टूटा. प्रश…ासन से बातचीत करने गई दो सगी बहनों को पुलिस ने झूलाघर स्थित आन्दोलनकारियों के कार्यालय में गोली मार दी। इसका विरोध करने पर पुलिस द्वारा अंधाधुंध फायरिंग कर दी गई, जिसमें कई लोगों को (लगभग 21) गोली लगी और इसमें से तीन आन्दोलनकारियों की अस्पताल में मृत्यु हो गई.
2 अक्टूबर, 1994
रात्रि को दिल्ली रैली में जा रहे आन्दोलनकारियों का रामपुर तिराहा, मुजफ्फरनगर में पुलिस-प्रशासन ने जैसा दमन किया, उसका उदारहण किसी भी लोकतांत्रिक देश तो क्या किसी तानाशाह ने भी आज तक दुनिया में नहीं दिया कि निहत्थे आन्दोलनकारियों को रात के अन्धेरे में चारों ओर से घेरकर गोलियां बरसाई गई और पहाड़ की सीधी-सादी महिलाओं के साथ दुव्र्यवहार तक किया गया. इस गोलीकाण्ड में राज्य के सात आन्दोलनकारी शहीद हो गये थे. इस गोली काण्ड के दोषी आठ पुलिसवालों थे, जिनमे तीन इंस्पेक्टर भी हैं, पर मामला चलाया जा रहा है.
उत्तराखंड राज्य आंदोलन के दौरान की ये तारीखें हमेशा याद रखी जाएगी. इन तारीखों में वह हुआ जिसकी आंदोलनकारियों ने कभी कल्पना भी नहीं की थी. 2 अगस्त 1994 को पौड़ी गढ़वाल से आंदोलन की चिंगारी जो भड़की, उसको बुझाने के लिए प्रदेश सरकार ने पहले 1 सितंबर 1994 को खटीमा और 2 सितंबर 1994 को मसूरी में आंदोलनकारियों पर गोलियां चलवा दी. इन गोलीकांडों में जहां कई आंदोलनकारी घायल हुए वहीं कई मौत की नींद सो गए. शांत व प्रकृति प्रेमी पहाड़वासी आंदोलन के इस रूप को देखकर खौफजदां होने की बजाय पहाड़ जैसे अड़ गए. उनके खून में इस कदर उबाल आ गया कि उन्होंने दिल्ली कूच की ठान ली. 2 अक्टूबर को दिल्ली में जंतर-मंतर पर प्रदर्शन का इरादा लिए रास्ते में रामपुर तिराहे पर प्रदेश ने एक बार फिर आंदोलनकारियों को रोकने के लिए बंदूक का सहारा लिया. जिसमें दो अक्टूबर 1994 को मुजफ्फरनगर कांड घटित हुआ.
पहाड़ की विषम भौगोलिक स्थिति और विकास के छटपटाते पहाड़वासियों की राज्य के प्रति दीवानगी के चलते राज्य का गठन तो हो गया. लेकिन गठन के 14 वर्ष बीतने के बाद भी इसकी समस्याएं ज्यों की त्यों बनी हुई. डॉक्टर हो या शिक्षक या फिर अन्य कर्मचारी कोई भी पहाड़ की पहाड़ जैसी पीड़ा को समझते हुए पहाड़ चढऩे को तैयार नहीं है, दूसरा राजनीतिक पार्टियों ने भी पहाड़वासियों का दोहन करते हुए अपना वोट बैंक को मजबूत करने पर ही अपना धयान लगाया. पहाड़ की मूलभूत समस्याओं के प्रति उनका नकारात्मक रवैया आज भी उस समय दिखाई देता है, आए खबर आती है फलां महिला ने सड़क पर बच्चा जना या फलां पर सड़क धंसने से सैकड़ों गांवों का संपर्क कटा या वगैरह-वगैरह. केदारनाथ की आपदा हो या नंदा राजजात यात्रा हर जगह पर सरकारे कितने भी दावे कर ले, पर हकीकत की जमीन पर सभी दावें धराशाई ही दिखते है.
Read Comments