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सबसे भयावह खुद मौत को चुनना

Harish Bhatt
Harish Bhatt
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यह बात समझ नहीं आ रही है कि किसान आत्महत्या क्यों कर रहे हैं. जब आत्महत्या किसी समस्या का समाधान नहीं है, फिर आत्महत्या क्यों? किसी के मरने या न मरने से नेताओं को कोई फर्क नहीं पड़ता तो फिर मरना क्यों? हां जिन पर फर्क पड़ता है, वह होता है उसका अपना परिवार – मां, पिता, पत्नी बच्चे. अपनी असमय मौत पर उनको रोते-बिलखते छोड़ जाने से ज्यादा बेहतर होगा, सही समय का इंतजार करना. यह कटु सत्य है कि जब मुसीबत आई है तो जाएगी भी. इसमे थोड़ा वक्त जरूर लग सकता है. सोचिए क्या आत्महत्या के बाद परिवार के हालात सुधर जाएंगे, उनकी मुसीबतें कम हो जाएंगी. इसका सीधा जवाब होगा बिलकुल नहीं. जब आत्महत्या के बाद भी अपनों के हालात बेहतर नहीं होगे तो फिर मरना क्यों. जिंदा रहकर अपनों के साथ मिलजुल कर मुसीबत का सामना किया जाए. इसके लिए अपना रोजगार बदला जा सकता है. दुनिया में हजारों काम है अपनी रोजी-रोटी कमाने लायक. एक काम में लगातार असफलता मिलने के बाद काम बदला जा सकता है. यहां पर बात आ सकती है कि जब दूसरा आता ही नहीं तो खेती के अलावा क्या काम किया जाए. आखिर कोई इंसान पेट से सीखकर तो आता नहीं. राजनीतिज्ञों को अपनी राजनीति चमकाने के लिए मुद्दा चाहिए. एक कृषि प्रधान लोकतांत्रिक देश में भूमि अधिग्रहण बिल को लेकर की जा रही राजनीति से इतर जाकर उन कारणों को जानना जरूरी है, जिनकी वजह से किसानों को आज आत्महत्या जैसे कदम उठाने पड़ रहे हैं. जब 50-60 सालों में कांग्रेस की सरकारें किसानों की हालात को सुधार न सकी हो, तो ऐसे में मोदी सरकार द्वारा किसानों के हित में भूमि अधिग्रहण बिल को पास करवाने पर राजनीतिक दलों द्वारा किसानों को भड़काने की वजह समझ नहीं आती. अधिकांश समय तक देश की सत्ता पर काबिज रहने वाली कांग्रेस द्वारा भाजपा को किसानों के हित में सलाह देने की बात हो या देश की राजनीति आमूल-चूल परिवर्तन करने वाली क्रांतिकारी आम आदमी पार्टी, इन दोनों की संवेदनाओं शून्य हो चुकी है. वरना ऐसा कैसे हो सकता है मुख्यमंत्री मंच पर हो और उनके सामने किसान पेड़ से लटक कर आत्महत्या कर लें, ताकि उनको अपने विरोधियों पर हमला बोलने के लिए मुद्दा मिल जाए. अगर भूमि अधिग्रहण बिल विपक्षियों के अनुसार सरकार के लिए इतना घातक है कि भाजपा सरकार रसातल में चली जाएगी, तो बीजेपी के उस थिंक टैंक का क्या होगा, जिसने विकास के लिए इस किसान विरोधी बिल को कानून का रूप देने के लिए कमर ही कस ली है. वह भी उस स्थिति में जब प्रधानमंत्री अगले लोकसभा चुनाव को जीतने की बात करते हो. बीजेपी का कहना है कि किसानों को अपनी जमीन की जो कीमत होगी, वह बाजार भाव से चार गुना होगी. इसके अलावा विकास कार्य के बाद उसके पास अविकसित भूमि की कीमत पर ही बुनियादी सुविधाओं से परिपूर्ण दो एकड़ जमीन खरीदने का विकल्प रहेगा. भूमि अधिग्रहण के बाद कॉलेजों, अस्पतालों, रेलवे आदि सुविधाओं का विस्तार होगा और विकास भी. जिससे निश्चित तौर पर किसानों को भी इसका लाभ मिलेगा. जो अब पूर्ववर्ती सरकारों द्वारा हो जाना चाहिए था, लेकिन अब तक नहीं हुआ. तब ऐसे में जब खेती करना निरंतर कठिन होता जा रहा, तब ऐसे में एक सुविधाजनक विकल्प से ज्यादा बेहतर क्या हो सकता है. किसान अपनी शर्तो पर निजी उद्देश्यों के होटल निर्माण, इमारत बनाने, कल कारखानों के लिए जमीन बेचने का अधिकार भी अपने पास ही रखेगा. साथ ही बिल में पांच साल के भीतर परियोजना के पूरा नहीं होने के बावजूद जमीन खरीददार के पास ही रहने का प्रावधान रखा गया है। इसके पीछे तर्क यह है कि कई बड़ी परियोजनाओं को पूरा करने के लिए लंबी अवधि की जरूरत होती है. उदाहरण के तौर पर परमाणु ऊर्जा संयंत्र को पूरा करने के लिए पांच से अधिक साल लग सकते हैं.यदि यह पांच साल में पूरा नहीं हो सका तो क्या हमें इसका कार्य बीच में ही छोड़ देना चाहिए? संबंधित परियोजनाओं के लिए स्पेशल इम्पैक्ट असेसमेंट को हटा दिया गया है, लेकिन जमीन के मालिकों को सभी प्रकार की सहायता, पुनर्वास और मुआवजा दिया जाएगा. यूं भी इंसान कितनी भी तरक्की कर लें, लेकिन प्रकृति के आगे किसी का जोर नहीं चलता. पिछले साल बारिश न होने की वजह से सूखा पड़ गया तो इस बार बारिश होने की वजह फसल बर्बाद हो गई. इसमें वर्तमान सरकार से ज्यादा पूर्ववर्ती सरकारें दोषी है. जिन्होंने किसानों को पंगु बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी. मसलन उनके ऋण माफ करना, रियायती दरों पर उनको बीज उपलब्ध कराना आदि. ताकि किसान अपना मुंह न खोले. यदि सरकारों ने फसलों की सिंचाई के लिए समुचित व स्थाई इंतजाम किए होते तो बारिश न होने की वजह से खेत सूखे होते और न ही बारिश होने पर फसल बर्बाद होगी. चलिए मान लिया इस बार बारिश होने पर गेहूं की फसल खराब हो गई. क्या यह सच नहीं है कि बारिश के पानी ने न जाने रेलवे स्टेशनों पर मालगाड़ी के इंतजार खुले पड़े न जाने कितने टनों गेंहू बर्बाद करके किसानों को रोने पर मजबूर किया है. पुरानी बदहाल हो चुकी व्यवस्था का ही असर है कि कोई किसान अपनी फसल में आग लगा रहा है, तो कोई खुद को मौत के हवाले कर रहा है. तब ऐसे में एक सुखद बदलाव की बयार बहाने की उम्मीद बनता भूमि अधिग्रहण पर सरकार विरोधियों का विरोध किसानों के कंधे पर चढ़ कर अपनी धूमिल होती जा रही सियासी जमीन बचाने के प्रयास से ज्यादा नहीं लगता.

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