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राहुल गांधी वही फसल काट रहे है, जो उनके पूर्वजों ने बोई थी. इसलिए किसी को उत्तेजित या दुखी होने की जरूरत नहीं है. जब बोया पेड़ बबूल का तो आम कहां से खाएं. आजादी के बाद देश के विकास के लिए जवाहर लाल नेहरू के सफल प्रयास को नकारा नहीं जा सकता. इंदिरा गांधी हो या राजीव गांधी देश के चहुंमुखी विकास में इनके योगदान को कम करके नहीं आंका जा सकता. आज जो भी सुविधाएं भारतीयों के पास है, वह सब राहुल गांधी के पूर्वजों की ही देन है. इन कांग्रेस लीडर्स की दूरदर्शी व दूरगामी सोच के चलते ही देश में बहुआयामी व दीर्घकालिक योजनाएं लागू की गई. उन्होंने भारतीयों कोहर सुख-सुविधा उपलब्ध कराने और सारे जहां से अच्छा हिन्दुस्तान बनाने के अपने संकल्प को पूरा करने के लिए जिस फसल की बुआई थी, वह आज लहलहा रही है. जिसके फल के रूप में कहीं किसान आत्महत्या कर रहे है तो कहीं विकास कार्य अधर में अटके पड़े है. योजनाएं कागजों में धूल फांक रही है. युवा पीढ़ी रोजगार न मिलने से धक्के खा रही है, कोई अमेरिका भाग रहा है तो कोई दुबई. कोई यूं ही घुट-घुटकर जी रहा है. कौन नहीं जानता कि भ्रष्टाचार को बढ़ावा देने वाली सुविधा शुल्क जैसी परम्परा को किसने बढ़ावा दिया या कोयले की दलाली में किसके हाथ काले है या राष्ट्रमंडल खेलों में किसने खिलाडिय़ों के आरमानों पर पानी फेरा. हिमाकत तो देखिए अपनी सरकारों के लगभग 50 सालों के कार्यकाल की तुलना उम्मीदों की नई बयार बहाने वाली मोदी सरकार के दस महीनों से करते हुए हिचकते भी नहीं. जब बात पांच साल की सरकार हो तो सिर्फ आठ-नौ महीनों में उसकी आलोचना करना बेमानी होगा. इसलिए नई सरकार को कुछ तो समय देना ही होगा. यूं भी भारत लोकतांत्रिक देश है, जहां जनता अगर जवाब देना जानती है तो वह सवाल करना भी जानती है. वह समय पूरा होने पर सवाल भी करेंगी और जवाब भी देगी. परन्तु देश की संसद की कार्यवाही को हल्ले-गुल्ले के बीच सिर्फ इसलिए स्थगित करवा देना है कि हम सत्ता में नहीं है. यह उचित नहीं है.
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