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कांग्रेस सरकार के खिलाफ सड़क पर भाजपा का शक्ति प्रदर्शन. शक्तिमान का पैर तोडऩा. सदन में कांग्रेस के विधायकों का मत विभाजन की मांग करना. भाजपा विधायक गणेश जोशी का जेल जाना. केंद्र के द्वारा विधानसभा निलंबित करते हुए राष्ट्रपति शासन लगाना. हरीश रावत की फ्लोर टेस्ट कराने और बागी विधायकों की विधानसभा सदस्यता समाप्त करने की मांग करना. भाजपा का सुप्रीम कोर्ट में गुहार लगाना. इन सबके बीच विधायकों की खरीद-फरोख्त की कोशिश और स्टिंग ऑपरेशनों के खुलासे. कांग्रेस और भाजपा का अपने-अपने विधायकों को दुश्मनों से बचाने के लिए कभी हरियाणा, कभी हिमाचल या उत्तराखंड के पर्यटकों स्थलों पर घूमने में व्यस्त रखना. आए दिन की दिल्ली-देहरादून दौड़ के बीच सुप्रीम कोर्ट का फ्लोर टेस्ट कराने का आदेश देना. बसपा का किंगमेकर की भूमिका निभाते हुए हरीश रावत को टेस्ट में पास करवाने के साथ ही दो माह के उथल-पुथल भरे राजनीतिक किस्से-कयासों पर पूर्ण विराम लगाना. भाजपा के उत्तराखंड मे जनमत की सरकार गिराकर अपनी सरकार बनाने के मंसूबे का धराशाई होना. इन सबके बीच एक ही बात आती है कि जिसकी लाठी-उसकी भैंस. केंद्र ने अपनी लाठी चलाते हुए सरकार गिराई, तो हरीश रावत ने अपना डंडा चलाते हुए विरोधी विधायकों की सदस्यता समाप्त करवा दी. बस फिर क्या गणितीय आंकड़ों में उलझी सियासत को आखिर में कांग्रेस ने अपने पक्ष में कर ही लिया. यह अलग बात है कि राज्य के अगले मुख्यमंत्री हरीश रावत ही रहेंगे या कोई और. यह कांग्रेस हाईकमान को तय करना है. जो सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद ही साफ होगा. भले ही 62 मतों वाली विधानसभा में कांग्रेस ने जीत हासिल कर ली हो, लेकिन आगामी विधानसभा चुनाव तो 70 सीटों पर ही होगा. कांग्रेस के नौ बागी हरीश रावत का विरोध कर रहे थे, कांग्रेस का नहीं. तब ऐसे में आगामी विधानसभा चुनाव जीतने और सरकार बनाने के लिए कांग्रेस को इन नौ बागी विधायकों को भी अपने पक्ष में साधना होगा. एक या दो विधायकों को पार्टी निकालना और नौ विधायकों को पार्टी से बाहर करने में जमीन-आसमान का अंतर होता है. इसी अंतर को पाटने के लिए कांग्रेस उत्तराखंड में मुख्यमंत्री को बदल दे तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी. इस प्रकरण में भाजपा ने मुंह की खाई है, ऐसा भी नहीं कहा जा सकता है, क्योंकि भाजपा मुख्य विपक्षी दल है. उसने भी विपक्षी की भूमिका निभाते हुए सरकार के विरोध में अपने काम को बखूबी अंजाम दिया है. इस राजनीतिक धींगामुश्ती के बीच राज्य के भविष्य पर कितना असर होगा, यह तो आने वाला वक्त बताएगा, लेकिन इन नेताओं का भविष्य तो आने वाले चुनाव मे उत्तराखंड की जनता ही तय करेगी. भाजपा कांग्रेस के दिग्गज अपने विधायकों का साधने में कामयाब हुए या नहीं यह अलग बात है कि लेकिन उनके सामने अब जनता साधने की खुली चुनौती है. इस चुनौती से निपटना इनके लिए टेढ़ी खीर ही साबित होने वाला है.
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