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प्राचीन काल में भारत में स्थित शिक्षा के सर्वश्रेष्ठ केंद्रों को विदेशी आक्रमाणकारियों ने नष्ट किया होगा या नहीं, यह बात इतिहास के पन्नों तक ही सीमित है लेकिन वर्तमान में भारत में शिक्षा व्यवस्था की बदहाली के लिए सरकारें ही जिम्मेदार है आजादी के लगभग 60 सालों में शिक्षा के संबंध कोई ठोस नीति नहीं है। साल दर साल बदलने वाले पाठ्यक्रमों के चलते हमेशा दुविधा में रहने वाले बच्चे व अभिभावकों के साथ ही शिक्षकों को भी पता नहीं चलता कि आखिर करना क्या है? राज नेताओं ने अपने तात्कालिक फायदे के लिए इतिहास को तोड़ते-मरोड़ते हुए न जाने कितने पन्नों को किताबों से गायब करवा दिया और न जाने कितने पन्नों को जुड़वा दिया. सरकारों की शिक्षा के प्रति उदासीन रवैये को बताने के लिए यहां-वहां खंडहर हुए प्राथमिक विद्यालय और राजनीति के अखाड़े बने विश्वविद्यालय कैंपस बयां करने के लिए काफी है. ऐसा भी तब है कि जब एक शिक्षक डा. सर्वपल्ली राधाकृष्णन के साथ-साथ बचपन में अखबार बेचकर कर पढ़ाई करने वाले मिसाइल मैन डा. एपीजे अब्दुल कलाम देश के सर्वोच्च पद को सुशोभित कर चुके हो. यह बात समझ नहीं आती है कि आखिर जो देश शिक्षा के क्षेत्र में विश्व में सर्वश्रेष्ठ स्थान पर रह चुका हो, जहां के नागरिकों ने बदहाली में जीवन-यापन करते हुए महत्वपूर्ण पदों को संभाला हो, वहां आज भी शिक्षा व्यवस्था बदहाल सी ही दिखती हो. इच्छा शक्ति का अभाव और राजनीतिक हीलाहवाली के चलते हमारा भविष्य क्या होगा, यह बात तो आने वाला भविष्य ही बताएगा, लेकिन फिलहाल तो हालात चिंता का विषय है ही.
जब विश्वविद्यालय अपने शैक्षणिक सत्र तक नियमित न कर पाते हो. सरकारे विश्वविद्यालयों को सामान्य स्तरीय सुविधाए तक देने में आनाकानी करती हो. तब ऐसे में युवाओं से कैसे उम्मीद की जा सकती है वो देश को तरक्की के रास्ते पर ले जाएगे. न फैकल्टी न स्टूडेंट्स के बैठने के लिए क्लास रूम और न ही पर्याप्त सुविधाए. बस धकापेल एडमिशन और फीस का घालमेल. भारत रहा होगा कभी विश्व मे शिक्षा का केन्द्र, लेकिन अब तो विश्वविद्यालय कैंपस राजनीति की प्रयोगशाला के तौर पर तब्दील होते जा रहे है. जिस दौर में गुरुओं की जगह सर ने ले ली हो, उस दौर में सिर ही उठेंगे, उन सिरों में क्या होगा, यह गुजरे समय की बात हो चुकी है. वह दौर और था जब गुरु को सर्वोपरि माना जाता था, लेकिन शिक्षा के बाजारीकरण के चलते गुरु -शिष्य की परंपरा खत्म सी हो गई है. अब पैसे के दम पर हासिल की गई शिक्षा में गुरु-शिष्य वाली जैसी कोई बात नहीं हो सकती है.
आईसीएससी, सीबीएसई और स्टेट बोर्ड. इन तीनों बोर्ड के बीच फंसे अभिभावक और बच्चे आखिर तक इस बात को नहीं समझ पाते कि आखिर एक ही देश में तीन-तीन बोर्ड की जरूरत क्यों? यह तीनों बोर्ड ही आम जनता में अमीरी-गरीबी के अंतर को कभी खत्म नहीं होने देते है. जब तक ये तीनों बोर्ड एक नही होगे तब तक असमानता की खाई को पाटा नही जा सकता. हिन्दी-अंग्रेजी माध्यम का ड्रामा वो अलग. नागरिकों में एकता का भाव जगाने की बजाय भेदभाव तो जड़ों के साथ ही पनपाया जा रहा है. साथ ही बच्चे की आफत ही आफत. जहां अंग्रेजी मीडियम वाले बच्चे आधी-अधूरी एजुकेशन के साथ अदर एक्टिविटी में सिर घपाते मिलेंगे, वहीं हिन्दी माध्यम वाले किताबों के पेज पलटते-पलटते कब बचपन की दहलीज पार कर जाते है, उन्हें तो क्या उनके अभिभावकों को भी पता नही चलता. भेदभाव बढ़ाने वाली शिक्षा व्यवस्था को पोषित करने वाली सरकार कहती है कि सबको पढ़ाओ- शिक्षित बनाओ. जब प्राथमिक शिक्षा व्यवस्था ही लडखडाई हो तो उच्च शिक्षा को कैसे भरोसेमंद माना जा सकता है. भारत को डिजिटल इंडिया बनाने से पहले कुछ सवालो के सकारात्मक जवाब तलाशने होगे. जैसे ग्रामीण इलाकों के सरकारी स्कूलों मे टीचर स्थाई रूप से पढाएगे. शिक्षा की लाचर व्यवस्था ढर्रे पर कैसे आएगी. पब्लिक और सरकारी स्कूलों के बीच बढ़ती खाई को कैसे पाटा जाएगा. मिड डे मील, साइकिल और लैपटॉप जैसी चीजों का लालच देकर आखिर कब तक बच्चों को स्कूल लाया जाएगा. एक समान शिक्षा प्रणाली भारत मे कब से लागू होगी. शिक्षा के बाजारीकरण पर रोक कब लगेगी. विश्विद्यालय कैंपस में जड़े जमाती राजनीति को कैसे दूर किया जाएगा. जब इन सवालों के सार्थक जवाब आएंगे तभी हम साक्षरता दर बढ़ाने के साथ-साथ अन्य क्षेत्रांे मे भी बेहतर प्रदर्शन कर सकेगे. इन सबसे अलग आए दिन होने वाली टीचर्स की हड़ताल, अध्यापकों का ट्यूशन के प्रति मोह भी शिक्षा व्यवस्था के लड़खड़ाने का एक कारण है. शिक्षा व्यवस्था को बेहतर कर लिया जाए तो एक बेहतर राष्ट्र का निर्माण किया जा सकता है. यह बात सही है कि अचानक कुछ नहीं होने वाला. आज शिक्षा व्यवस्था की खामियों को दूर करने का प्रयास शुरू करेंगे तब जाकर हमारी आने वाली पीढिय़ों को इसके सुखद परिणाम देखने को मिलेंगे. वरना यूं ही भारतीय प्रतिभाएं देश छोड़ती रहेगी और अपने सिस्टम को कोसती रहेगी.
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